अरुण कुमार

भारतीय अर्थव्यवस्था इन दिनों बाहरी व अंदरूनी, दोनों तरह की चुनौतियों से जूझ रही है। थोक महंगाई दर पिछले एक साल से 10 फीसदी के ऊपर बनी हुई है, तो खुदरा महंगाई दर भी बीते पांच माह से रिजर्व बैंक की छह प्रतिशत की सीमा से ज्यादा है। चौथी तिमाही (जनवरी-मार्च) के जीडीपी आंकडे़ बता रहे हैं कि हमारी विकास दर 2019 के स्तर से महज डेढ़ प्रतिशत अधिक है। जाहिर है, भारतीय अर्थव्यवस्था में एक ठहराव-सा आ गया है, जबकि महंगाई अपनी गति से बढ़ रही है।

आर्थिक शब्दावली में इसे ही ‘स्टैगफ्लेशन’ (स्टैगनेशन और इन्फ्लेशन से मिलकर बना शब्द) कहते हैं। दिक्कत यह है कि देश में खपत अब भी पुराने रुतबे को नहीं पा सकी है। भारतीय रिजर्व बैंक का उपभोक्ता विश्वास सूचकांक मार्च में 71.7 अंक तक ही पहुंच सका था, जबकि महामारी से पहले यह 104 अंकों पर था। इसका अर्थ है कि बाजार पर अब भी लोगों का विश्वास जमा नहीं है।

मुश्किल यह भी है कि मांग में कमी रहने के बावजूद महंगाई तेज है। इस परिस्थिति में भारतीय रिजर्व बैंक ने पिछले एक महीने में दो बार रेपो दर बढ़ाने का जोखिम लिया है। जब यह दर बढ़ती है, तब मांग स्वाभाविक तौर पर कम हो जाती है। चूंकि अपने देश में मांग पहले से ही कम है, इसलिए आशंका है कि अर्थव्यवस्था में ठहराव की यह स्थिति लंबे समय तक बनी रहेगी।

कीमतों का नियंत्रित न होना हमारे लिए विशेष कठिनाई पैदा कर रहा है। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति शृंखला में आई बाधा कीमतों के बढ़ने की एक बड़ी वजह है। यूक्रेन युद्ध से ऊर्जा, खाद्य पदार्थों, खाद आदि की आपूर्ति पर बुरा असर पड़ा है। फिर, चीन में लॉकडाउन की वापसी ने भी हालात खराब किए हैं। वह चूंकि दुनिया का ‘मैन्यूफैक्चरिंग हब’ है, इसलिए निर्माण-कार्यों से जुड़ी कंपनियों की परेशानी बढ़ गई है। रेपो दर बढ़ाने से चूंकि इन बाहरी कारकों पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा, इसलिए महंगाई भी कोई खास कम नहीं होने वाली।
कीमतों में आई उछाल की एक वजह बड़ी कंपनियों द्वारा अपने उत्पादों का दाम बढ़ाना भी है।

ऐसा करके वे अतिरिक्त लाभ कमा रही हैं। रिजर्व बैंक का 1,500 कंपनियों का सर्वे बता रहा है कि संगठित कंपनियों के फायदे 20 फीसदी तक बढ़े हैं। हिन्दुस्तान लीवर की दो हफ्ते पहले आई रिपोर्ट भी यह बताती है कि कोरोना संक्रमण-काल में सूक्ष्म व लघु कंपनियों के दम तोड़ देने के कारण उनकी मांग बड़ी कंपनियों के खाते में चली गई है, जिससे बाजार में उनकी हिस्सेदारी बढ़ गई है और उनको इसका फायदा मिला है।

इस लिहाज से देखें, तो बैंक दर बढ़ाने का रिजर्व बैंक का मूल मकसद रुपये के घटते मूल्य को थामना है। दरअसल, अमेरिका का फेडरल रिजर्व बाजार में तरलता कम कर रहा है और अपनी दरें बढ़ा रहा है। इस कारण विदेशी निवेशक भारतीय बाजार से पूंजी वापस खींच रहे हैं। इससे हमारा विदेशी मुद्रा भंडार गिरा है। रही-सही कसर यूक्रेन युद्ध पूरी कर दे रहा है, जिससे हमारे आयात में उछाल आया है और चालू खाते का घाटा बढ़ गया है।

नतीजतन, डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हुआ है। रिजर्व बैंक रुपये को मजबूत करना चाहता है। चूंकि निवेशकों को दूसरे देशों में अधिक दर मिल रही है, इसलिए आरबीआई ने यहां भी बैंक दरें बढ़ाई हैं, ताकि निवेशकों को लुभाया जा सके। इसमें रिजर्व बैंक सफल हो सकता है।

साफ है, बढ़ती महंगाई को थामने के लिए हमें मौद्रिक नीति का सहारा लेना होगा। विशेषकर पेट्रो उत्पादों पर लगाए जाने वाले परोक्ष कर हमें कम करने चाहिए। 2007-08 की वैश्विक महामंदी के समय सरकार ने परोक्ष करों में कटौती करके ही अर्थव्यवस्था को संभाला था। मौजूदा केंद्र व राज्य सरकारों ने कुछ हद तक ऐसा किया है, पर इसे और कम किया जाना चाहिए। इसी तरह के अन्य कदमों की अभी दरकार है।

इन सबसे निस्संदेह राजकोषीय घाटा बढ़ेगा। सरकार चाहे, तो इसकी पूर्ति प्रत्यक्ष करों से कर सकती है। अभी कारोबारी जगत ने बेतहाशा फायदा कूटा है। उन पर ‘विंडफॉल टैक्स’ लगाया जा सकता है। अमेरिका जैसे देश इसे लेकर गंभीर भी हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि जब उत्पादों के दाम बढ़ाकर कंपनियों ने मुनाफा कमाया है, तो उसका एक हिस्सा सरकार के खाते में आना ही चाहिए। इसी तरह, अरबपतियों पर भी ‘वेल्थ टैक्स’ लगाया जा सकता है। यानी, प्रत्यक्ष कर बढ़ाकर हम परोक्ष कर में राहत देने की पहल कर सकते हैं। 

ऐसे प्रयासों की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि यूक्रेन संकट का समाधान हाल-फिलहाल में नहीं दिख रहा। इस युद्ध के लंबा खिंचने का अर्थ है, वैश्विक आपूर्ति शृंखला में रुकावट का बने रहना। खतरा यह भी है कि इससे एक नए शीत युद्ध का आगाज हो सकता है, जो पूर्व की तरह पूंजीवादी (अमेरिका) व साम्यवादी (सोवियत संघ, अब रूस) देशों के बीच नहीं, बल्कि दो पूंजीवादी व्यवस्थाओं (रूस व चीन एक तरफ, बाकी बड़े देश दूसरी तरफ) के बीच होगा।

इसी वजह से आने वाले दिनों में वैश्विक मंदी की आशंका जताई जा रही है, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था भी नहीं बच सकेगी। इस अनिश्चितता से पार पाने के लिए भारतीय हुकूमत को संजीदगी से काम करना होगा। मगर आलम यह है कि आम लोग भी अब मानने लगे हैं कि महंगाई बढे़गी। महंगाई बढ़ने की यह आकांक्षा बाजार में मांग को प्रभावित करती है, जिससे महंगाई को नियंत्रित करना और मुश्किल हो जाता है। इसीलिए सरकार को आपूर्ति बढ़ाने की नीति के बजाय मांग बढ़ाने की नीति पर जोर देना चाहिए। इसके लिए सूक्ष्म व लघु इकाइयों को मदद देनी होगी। 

यहां ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी योजना काम आ सकती है, लेकिन इसके लिए हमें प्रौद्योगिकी को उन्नत बनाना होगा। हमने यह कोशिश जरूर की कि चीन से निवेश कम हो या उससे हम कम व्यापार करें, पर वहां से हमारा आयात इसलिए बढ़ रहा है, क्योंकि हमारे उद्योगों को सस्ता ‘इनपुट’ (माल) चाहिए। इसीलिए हमें प्रौद्योगिकी के विकास पर ध्यान देना होगा, क्योंकि नई-नई तकनीक के बूते ही चीन उन उत्पादों की सस्ते दामों में आपूर्ति करने लगा है, जिसमें हमारी कभी तूती बोलती थी। ऐसे वक्त में, जब वैश्वीकरण की परिकल्पना दम तोड़ रही हो, तब आत्मनिर्भरता जैसी रणनीति हमारी अर्थव्यवस्था को संभाल सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

यह लेख सबसे पहले Live Hindustan में अर्थव्यवस्था को उबारने की कवायद के शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

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लेखक के बारे में

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अरुण कुमारअर्थशास्त्री और मैल्कम एस अदिशेशिया अध्यक्ष प्रोफेसर, सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली|

Youtube: डॉ अरुण कुमार को IMPRI #WebPolicyTalk में महामारी व आम बजट: कार्यान्वयन और आगे का रास्ता पर बात करते हुए देखिए।

Authored By:

  • Zubiya Moin

    Zubiya Moin is a Research intern at IMPRI. She is currently pursuing Bachelors in Economics (Hons.) at Jamia Millia Islamia, Delhi.