स्विस बैंक: विदेशों में भारतीयों द्वारा धन जमा करने की वजह एवं शेल कंपनियों का सत्य

अरुण कुमार

हाल में खबर आई है कि स्विस बैंकों में भारतीयों के जमा धन में भारी इजाफा हुआ है। वर्ष 2021 में भारत के लोगों और संस्थाओं की स्विस बैंकों में कुल जमा राशि 30,500 करोड़ रुपये थी। यह 14 साल के उच्च स्तर पर है। स्विस बैंकों ने यह जो जानकारी दी है, वह वैध धन है, काला धन नहीं। विदेशों में या स्विस बैंक में भारतीयों का कितना काला धन जमा है, इसका पता लगाना टेढ़ी खीर है। 

अपने देश से जिस माध्यम से काला धन विदेशों में जाता है, उसे हम लेयरिंग कहते हैं। लेयरिंग में लोग देश से काला धन हवाला, आयात या निर्यात में अंडर इनवॉयसिंग तथा ओवर इनवॉयसिंग के जरिये किसी टैक्स हेवन देश में किसी शेल कंपनी में डाल देते हैं। फिर वहां उस शेल कंपनी को बंद करके किसी दूसरे टैक्स हेवन देश में नई शेल कंपनी बनाकर उसमें पैसा लगा देते हैं। 

इस तरह से छह चरणों में पैसे निकालते, डालते हुए अंत में स्विट्जरलैंड भेजते हैं। ऐसे में छह स्तर होने पर छह शेल कंपनियां बनती और बंद होती हैं, जिसका पता लगाना बहुत मुश्किल होता है। सरकार अगर चाहे भी तो एकाध स्तर तक ही पता लगा पाती है, उससे आगे पता नहीं लग पाता है। लेयरिंग की इस प्रक्रिया में जहां से आखिरी बार स्विट्जरलैंड में पैसा जाता है, स्विट्जरलैंड सरकार उसे उस देश का पैसा मान लेती है। 

जैसे कि जर्सी आइलैंड से पैसा स्विट्जरलैंड गया है, तो वह मान लेगी कि यह पैसा ब्रिटिश है, भारतीय नहीं है, क्योंकि जर्सी आइलैंड ब्रिटेन का है। इसलिए उसे भारतीय धन में नहीं गिना जाता है। स्विट्जरलैंड के बैंकों में जो पैसा है, वह सबसे ज्यादा (30 लाख 62 हजार करोड़ रुपये) ब्रिटिश पैसा है, क्योंकि ब्रिटेन के पास सबसे ज्यादा टैक्स हेवन हैं। इसलिए स्विट्जलैंड की सरकार कहती है कि हमारे यहां सबसे ज्यादा पैसा ब्रिटेन से आया है। 

जबकि सबसे ज्यादा काला धन रूस, यूक्रेन, भारत आदि देशों में पैदा होता है। वास्तव में जो वैध धन होता है, स्विस बैंक उसकी ही गिनती बताते हैं। सरकार अगर चाहे भी, तो वह पैसा वापस नहीं ला सकती, क्योंकि आयातकों और निर्यातकों पर सरकार का उतना दबाव नहीं होता कि वैध धन को विदेशों से देश में लाया जाए। अगर यह काला धन नहीं है, तो फिर भारत के लोग स्विस बैंकों में पैसा क्यों जमा करते हैं? इसकी कई वजहें हैं। 

जब भी अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता की स्थिति पैदा होती है, तो लोग अपने धन को डायवर्सिफाइ (अलग-अलग जगहों पर जमा करना) करते हैं, इससे उनका जोखिम कम हो जाता है। जैसे कि मान लीजिए कि इस बात का खतरा है कि रुपया गिरेगा, तो वे अपना धन फॉरेन एक्सचेंज के माध्यम से स्विस बैंकों में जमा कर देंगे। जो निर्यातक हैं, वे अपना पैसा देर से लाएंगे, जब अर्थव्यवस्था में स्थिरता आएगी और रुपये के गिरने का खतरा कम हो जाएगा। 

और जो आयात करने वाले हैं, वे अपना पैसा इसलिए विदेशी बैंकों में जमा रखते हैं, क्योंकि उन्हें आयात बिल भरना होता है। अन्यथा रुपये का मूल्य गिरने पर उन्हें भारी घाटा होगा। इस तरह से आयातक और निर्यातक यह अनुमान लगाकर कि रुपया कमजोर होने पर हमें घाटा हो सकता है, अपना वैध पैसा विदेशी बैंकों में जमा करते हैं। इसके अलावा रिजर्व बैंक की लिबरलाइज्ड रेमिटेंस स्कीम (एलआरएस) है, जिसके तहत कोई भी हर साल ढाई लाख डॉलर देश के बाहर ले जा सकता है।

उसके चलते भी बहुत से लोग अपना वैध धन स्विस बैंकों में या कहीं और जमा करते हैं। स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राशि बढ़ने का संकेत यह है कि लोगों को लग रहा है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति थोड़ी कमजोर हो रही है। इस बीच, एक और बात हुई है, हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल्स (एचएनडब्ल्यूआई) देश छोड़कर जा रहे हैं। एक रिपोर्ट आई थी कि वर्ष 2014 से 2017 के बीच में देश से 23,000 हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल्स देश छोड़कर विदेश चले गए। 

वर्ष 2018 में पांच हजार एचएनडब्ल्यूआई देश छोड़कर चले गए। सुनने में यह भी आ रहा है कि बीते एक साल में नौ हजार एचएनडब्ल्यूआई देश छोड़कर चले गए हैं। जाहिर है, जब वे बाहर रहेंगे, तो अपनी संपत्ति का एक हिस्सा बाहर ही रखेंगे। अभी देश का जो माहौल है, उसमें कई अति समृद्ध लोगों को यह भय है कि पता नहीं कब सरकार कौन-सा दबाव बनाए या सख्ती करे, इसलिए वे देश छोड़कर विदेशों में बसने जा रहे हैं। 

अपने सामाजिक माहौल और निवेश माहौल में जो अनिश्चितता का दौर चल रहा है, उसके कारण भी हो सकता है कि लोगों ने अपना और ज्यादा वैध धन स्विस बैंकों में जमा किया हो। दो तरीके से देश से विदेशों में पैसा जाता है। एक तो वैध तरीके से और दूसरा काले धन के रूप में। मेरा अनुमान है कि इस समय देश में काले धन की जो अर्थव्यवस्था है, वह जीडीपी का साठ प्रतिशत है। 

देश में जितना काला धन पैदा होता है, उसका दस प्रतिशत बाहर जाता है, बाकी 90 प्रतिशत काला धन देश में ही रहता है। इसलिए अगर हमें काले धन पर अंकुश लगाना है, तो देश में ही उस पर लगाम लगानी चाहिए। अगर बाहर भेजे गए काले धन को पकड़ना चाहेंगे, तो उसमें विफलता ही मिलेगी, क्योंकि सरकार को भी ठीक-ठीक पता नहीं कि कितना काला धन बाहर गया है और उसे कहां रखा गया है। 

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इस संबंध में जो आंकड़े मिलते हैं, वे चोरी के आंकड़े होते हैं। जैसे कि बैंकों के डाटा को हैक करके आंकड़ा बाहर निकाला जाता है, लेकिन वास्तविक आंकड़ा पता नहीं चलता है, क्योंकि उसे छिपाकर रखा जाता है। इसके अलावा, जो काला धन बाहर जाता है, उसका तीस से चालीस प्रतिशत राउंड ट्रिपिंग के जरिये वापस चला आता है। 

राउंड ट्रिपिंग का मतलब यह है कि कोई व्यक्ति या कंपनी विभिन्न स्रोतों से धन किसी टैक्स हेवन देश में भेजती है और फिर वहां से अन्य स्रोत से अपनी भारतीय कंपनी में निवेश करा लेती है। इससे यह पता नहीं चल पाता कि वास्तव में पैसा किसका है। साथ ही जो लोग काला धन बाहर भेजते हैं, वे वहां अपने बच्चों की पढ़ाई, इलाज आदि पर खर्च करते हैं अथवा घर खरीद लेते हैं। जैसे कि अंबानी या अदार पूनावाला ने महामारी के दौरान लंदन में बड़े घर खरीदे। 

यह पैसा लिक्विड फॉर्म में ज्यादा नहीं रहता कि उसे वापस ला सकें। इसलिए काले धन को बाहर से लाने की कवायद का बहुत फायदा नहीं है। अगर काले धन को पकड़ना है, तो उसे अपने देश में ही रोकना होगा, विदेशों से हम काला धन वापस नहीं ला पाएंगे। सरकार चाहे, तो अपने देश में ही काले धन को पैदा होने से रोक सकती है, लेकिन सरकारें ऐसा करती नहीं हैं, क्योंकि सत्तारूढ़ दलों को काले धन से फायदा होता है।

यह लेख सबसे पहले अमर उजाला में स्विस बैंक : विदेशों में क्यों धन जमा करते हैं भारतीय, इसकी वजहें और शेल कंपनियों का सच के शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

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लेखक के बारे में

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अरुण कुमारअर्थशास्त्री और मैल्कम एस अदिशेशिया अध्यक्ष प्रोफेसर, सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली|

Youtube: डॉ अरुण कुमार को IMPRI #WebPolicyTalk में महामारी व आम बजट: कार्यान्वयन और आगे का रास्ता पर बात करते हुए देखिए।

Author

  • Zubiya Moin

    Zubiya Moin is a Research intern at IMPRI. She is currently pursuing Bachelors in Economics (Hons.) at Jamia Millia Islamia, Delhi.